शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

अखण्ड भारत

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता,
आजादी अभी अधूरी है।

सपने सच होने बाकी हैं,
रावी की शपथ न पूरी है।
लाशों पर पग धर कर,
आजादी भारत में आई।
अब तक हैं खानाबदोश,
गम की काली बदली छाई॥
के फुटपाथों पर, जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥
के नाते उनका दुख सुनते, यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो, सभ्यता जहां कुचली जाती॥
इन्सान जहां बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियां भरता है, डालर में मुस्काता है॥
को गोली, नंगों को हथियार पिन्हाये जाते हैं।
सूखे कण्ठों से, जेहादी नारे लगवाये जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर, मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है, गमगीन गुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूं, आजादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊं मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दूर नहीं खण्डित भारत को, पुन: अखण्ड बनायेंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक, आजादी पर्व मनायेंगे।

उस स्वर्ण दिवस के लिए, आज से कमर कसें, बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं, जो खोया उसका ध्यान करें॥

साध्वी ऋतंभरा की हुंकार

गत 30 दिसंबर को दिल्‍ली में आयोजित ऐतिहासिक रामसेतु रक्षा महासम्‍मेलन में साध्वी ऋतंभरा, प्रणेता, वात्सल्य ग्राम (वृंदावन) का उदबोधन-


इस देश का प्राणाधार हैं श्री राम। वे हमारी आस्थाओं और जन-जन की निष्ठाओं में बसते हैं। वे पंचवटी की छांव में मिलते हैं, अंगद के पांव में मिलते हैं, अनसुइया की मानवता में मिलते हैं और मां सीता की पावनता में दृष्टिगोचर होते हैं। राम मंदिर के फेरों में नहीं शबरी के झूठे बेरों में मिलते हैं। देख सकते हो तो देखो, सारा हिन्दू जनमानस भगवान राम से आलोकित और संचालित होता है।


अपने पुरखों और संस्कृति को नकारने से बड़ा दुर्भाग्य कुछ और नहीं हो सकता। आज जैसी स्थिति बनी है वैसी स्थिति पहले भी आई थी जब अयोध्या में प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि पर पराभवी युग का प्रतीक सबकी आस्थाओं को चुनौती दे रहा था। 6 दिसम्बर 1992 को हिन्दू समाज की शक्ति के आगे वह प्रतीक देखते ही देखते ओझल हो गया। लेकिन आज परिस्थितियां बड़ी विचित्र हैं। रामसेतु को तोड़ना निशाचरी चिंतन है, आसुरी प्रवृत्ति है। रामसेतु केवल एक सेतु नहीं हमारी आस्था का दर्पण है। इसे ध्वस्त करने वालों के विरुध्द संकल्पित होकर प्रतिकार का शंख गुंजाना होगा, राजकाज के लिए सभी को आगे आना होगा।


करुणा हमारा स्वभाव है लेकिन जब कोई हमारी आस्थाओं को चुनौती देता है तो हम षडंत्रों के संहारी बनकर मंत्रों का नवनिर्माण करते हैं, जो क्रांति का मार्ग प्रशस्त करता है। ये देश राम का है, परिवेश राम का है, हम सब राम के हैं। तुम हिन्दू हो, जिन्होंने नक्षत्रों को संज्ञा दी है, जिन्होंने दधीचि बनकर अपनी हड्डियां राष्ट्र को समर्पित की हैं। तुम हिन्दू हो, जिन्होंने सागर की छाती पर पाषाणों को तैराया था, जिन्होंने स्वाभिमान के लिए अपने पुत्रों को दीवार में चिनवाया था। तुम हिन्दू हो, जिन्होंने युध्दों की चुनौतियां भी स्वीकार कर ली थीं, फांसी को फंदे को चूमा था, लेकिन मां भारती के स्वाभिमान और अस्तित्व के लिए अपने यौवन को न्योछावर किया था। हिन्दुओ, तुमने अन्दमान की काली कोठरी में पत्थरों पर अपने रक्त के शौर्य की कहानियां लिखी थीं। हिन्दुओ, तुमने घास की रोटियां खाई थीं लेकिन अपने स्वाभिमान को नहीं बेचा था। हिन्दुओ, तुमने हरिश्चंद्र बनकर मणिकर्णिका घाट पर अपना कर्तव्य निभाया था, अपने सम्मुख अपने पुत्र की लाश लिए खड़ी पत्नी को देखकर भी तुम विचलित नहीं हुए थे। हिन्दुओ, तुमने अपना सर्वस्व न्योछावर किया राष्ट्र के लिए, समाज, धर्म, संस्कृति के लिए। हम अपने लिए जीना जानते ही नहीं, हम अपनों के लिए जीना जानते हैं। हमने कण-कण में राम का दर्शन किया है। हम सारी दुनिया में वात्सल्य लुटाने वाले हैं। लेकिन आज अपनी धरती पर अपनी सहिष्णुता के कारण अपमानित होने को विवश हुए हैं। अपनी धरती पर शरणार्थी बन जाने का दंश एक हिन्दू से ज्यादा कौन जानता है? अपने ही देश के अंदर केसर की क्यारियों में बारूद पैदा की गई, हमारे ही देश के टुकड़े-टुकड़े करके तुष्टीकरण की राजनीति को परवान चढ़ाया गया। हम देखते रहे। और आज स्थिति यह हो गई कि लोग हमारे राम को नकारने की धृष्टता करने लगे हैं। इस देश में जब तक आसुरी ताकतें रहेंगी वंदनीय का वंदन नहीं होगा, दण्डनीयों का दण्ड नहीं होगा। इसलिए हिन्दू समाज को संतों का आदेश है कि आने वाले समय में इस देश के अंदर ऐसे वातावरण का निर्माण करें जहां कातिलों की मुक्ति के विधान नहीं रचे जाएंगे, अपितु देश के अंदर आतंकवादियों को सूली पर चढ़ाया जाएगा।


कातिलों की मुक्ति का विधान हो गया यहां

आज देशद्रोही भी महान हो गया यहां।

इक रिवाल्वर ने देशभक्ति को डरा दिया,

कातिलों की टोलियों को रहनुमा बना दिया।

कल लिए हुए खड़ा था बम बनाती टोलियां,

जो उजाड़ता रहा है मेहंदी, मांग, रोलियां।

जो सदा वतन की लाज को उघाड़ता रहा,

और भारती का मानचित्र फाड़ता रहा।

जो नकारता रहा है देश के विधान को,

थूकने की चीज मानता था संविधान को।

इसके सर पे ताज धरके हो रही है आरती,

रो रहा है देशप्रेम, रो रही है भारती।

जो हमारी रोती मातृभूमि को सुकून दे,

और देश द्रोहियों को गोलियों से भून दे,

ऐसे सरफरोश का हमें प्रकाश चाहिए,

देश के लिए पटेल या सुभाष चाहिए।


महात्मा गांधी ने इस देश की बागडोर पं. नेहरू के हाथों में न सौंपकर यदि सरदार पटेल के हाथों में सौंपी होती तो भारत, भारत के रूप में भारतीयता के गीत गाता दिखाई देता। उस समय हम चूके। लेकिन आज पुन: देश हमसे कुछ मांग रहा है। राम से प्रेम रखने वाले धर्मयोध्दाओं रामद्रोहियों के प्रतिकार का संकल्प करो। उन पाषाणों का स्मरण करो जो 'राम' नाम अंकित कर सागर की छाती पर तैराए गए थे, उस गिलहरी का स्मरण करो जो सेतु निर्माण में अपना किंचित योगदान देने आई थी। प्रभु राम ने भी गिलहरी के उस प्रयास को देखकर प्रेम से उसके शरीर पर हाथ फेरा था। इसलिए हिन्दुओ, अपने छोटे-छोटे प्रयत्नों से बिखरी शक्ति को संगठित करो। क्रंदन नहीं, हुंकार भरो हिन्दुओ।


जो सनातन नहीं मिटा लंकेश की तलवार से,

जो सनातन नहीं मिटा कंस की हुंकार से,

वो सनातन क्या मिटेगा मनमोहन की सरकार से


इस सत्य सनातन संस्कृति की जड़ें गहरी हैं, जिन्हें हमने अपनी श्रध्दा से सींचा है। इसलिए हिन्दू समाज रामसेतु रक्षार्थ संकल्पित हो।

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

इस बहादुर विधवा की दर्दनाक आपबीती से मनमोहन सिंह की नींद उचाट नहीं होती

आप सभी को याद होगा कि किस तरह से ऑस्ट्रेलिया में एक डॉक्टर हनीफ़ को वहाँ की सरकार ने जब गलती से आतंकवादी करार देकर गिरफ़्तार कर लिया था, उस समय हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने बयान दिया था कि “हनीफ़ पर हुए अत्याचार से उनकी नींद उड़ गई है…” और उस की मदद के लिये सरकार हरसंभव प्रयास करेगी। डॉक्टर हनीफ़ के सौभाग्य कहिये कि वह ऑस्ट्रेलिया में कोर्ट केस भी जीत गया, ऑस्ट्रेलिया सरकार ने उससे लिखित में माफ़ी भी माँग ली है एवं उसे 10 लाख डॉलर की क्षतिपूर्ति राशि भी मिलेगी…

अब चलते हैं सऊदी अरब… डॉक्टर शालिनी चावला इस देश को कभी भूल नहीं सकतीं… यह बर्बर इस्लामिक देश, रह-रहकर उन्हें सपने में भी डराता रहेगा, भले ही मनमोहन जी चैन की नींद लेते रहें…

डॉक्टर शालिनी एवं डॉक्टर आशीष चावला की मुलाकात दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में हुई, दोनों में प्रेम हुआ और 10 साल पहले उनकी शादी भी हुई। आज से लगभग 4 वर्ष पहले दोनों को सऊदी अरब के किंग खालिद अस्पताल में नौकरी मिल गई और वे वहाँ चले गये। डॉ आशीष ने वहाँ कार्डियोलॉजिस्ट के रुप में तथा डॉ शालिनी ने अन्य मेडिकल विभाग में नौकरी ज्वाइन कर ली। सब कुछ अच्छा-खासा चल रहा था, लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था…

जनवरी 2010 (यानी लगभग एक साल पहले) में डॉक्टर आशीष चावला की मृत्यु हार्ट अटैक से हो गई, अस्पताल की प्रारम्भिक जाँच रिपोर्ट में इसे Myocardial Infraction बताया गया था अर्थात सीधा-सादा हार्ट अटैक, जो कि किसी को कभी भी आ सकता है। यह डॉ शालिनी पर पहला आघात था। शालिनी की एक बेटी है दो वर्ष की, एवं जिस समय आशीष की मौत हुई उस समय शालिनी गर्भवती थीं तथा डिलेवरी की दिनांक भी नज़दीक ही थी। बेटी का खयाल रखने व गर्भावस्था में आराम करने के लिये शालिनी ने अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा पहले ही दे दिया था। इस भीषण शारीरिक एवं मानसिक अवस्था में डॉ शालिनी को अपने पति का शव भारत ले जाना था… जो कि स्थिति को देखते हुए तुरन्त ले जाना सम्भव भी नहीं था…।

फ़िर 10 फ़रवरी 2010 को शालिनी ने एक पुत्र “वेदांत” को जन्म दिया, चूंकि डिलेवरी ऑपरेशन (सिजेरियन) के जरिये हुई थी, इसलिये शालिनी को कुछ दिनों तक बिस्तर पर ही रहना पड़ा…ज़रा इस बहादुर स्त्री की परिस्थिति के बारे में सोचिये… उधर दूसरे अस्पताल में पति का शव पड़ा हुआ है, दो वर्ष की बेटी की देखभाल, नवजात शिशु की देखभाल, ऑपरेशन की दर्दनाक स्थिति से गुज़रना… कैसी भयानक मानसिक यातना सही होगी डॉ शालिनी ने…

लेकिन रुकिये… अभी विपदाओं का और भी वीभत्स रुप सामने आना बाकी था…

1 मार्च 2010 को नज़रान (सऊदी अरब) की पुलिस ने डॉ शालिनी को अस्पताल में ही नोटिस भिजवाया कि ऐसी शिकायत मिली है कि “आपके पति ने मौत से पहले इस्लाम स्वीकार कर लिया था एवं शक है कि उसने अपने पति को ज़हर देकर मार दिया है”। इन बेतुके आरोपों और अपनी मानसिक स्थिति से बुरी तरह घबराई व टूटी शालिनी ने पुलिस के सामने तरह-तरह की दुहाई व तर्क रखे, लेकिन उसकी एक न सुनी गई। अन्ततः शालिनी को उसके मात्र 34 दिन के नवजात शिशु के साथ पुलिस कस्टडी में गिरफ़्तार कर लिया गया व उससे कहा गया कि जब तक उसके पति डॉ आशीष का दोबारा पोस्टमॉर्टम नहीं होता व डॉक्टर अपनी जाँच रिपोर्ट नहीं दे देते, वह देश नहीं छोड़ सकती। डॉ शालिनी को शुरु में 25 दिनों तक जेल में रहना पड़ा, ज़मानत पर रिहाई के बाद उसे अस्पताल कैम्पस में ही अघोषित रुप से नज़रबन्द कर दिया गया, उसकी प्रत्येक हरकत पर नज़र रखी जाती थी…। चूंकि नौकरी भी नहीं रही व स्थितियों के कारण आर्थिक हालत भी खराब हो चली थी इसलिये दिल्ली से परिवार वाले शालिनी को पैसा भेजते रहे, जिससे उसका काम चलता रहा… लेकिन उन दिनों उसने हालात का सामना बहुत बहादुरी से किया। जिस समय शालिनी जेल में थी तब यहाँ से गई हुईं उनकी माँ ने दो वर्षीय बच्ची की देखभाल की। शालिनी के पिता की दो साल पहले ही मौत हो चुकी है…

डॉ आशीष का शव अस्पताल में ही रखा रहा, न तो उसे भारत ले जाने की अनुमति दी गई, न ही अन्तिम संस्कार की। डॉक्टरों की एक विशेष टीम ने दूसरी बार पोस्टमॉर्टम किया तथा ज़हर दिये जाने के शक में “टॉक्सिकोलोजी व फ़ोरेंसिक विभाग” ने भी शव की गहन जाँच की। अन्त में डॉक्टरों ने अपनी फ़ाइनल रिपोर्ट में यह घोषित किया कि डॉ आशीष को ज़हर नहीं दिया गया है उनकी मौत सामान्य हार्ट अटैक से ही हुई, लेकिन इस बीच डॉ शालिनी का जीवन नर्क बन चुका था। इन बुरे और भीषण दुख के दिनों में भारत से शालिनी के रिश्तेदारों ने सऊदी अरब स्थित भारत के दूतावास से लगातार मदद की गुहार की, भारत स्थित सऊदी अरब के दूतावास में भी विभिन्न सम्पर्कों को तलाशा गया लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली, यहाँ तक कि तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री शशि थरुर से भी कहलवाया गया, लेकिन सऊदी अरब सरकार ने “कानूनों”(?) का हवाला देकर किसी की नहीं सुनी। मनमोहन सिंह की नींद तब भी खराब नहीं हुई…

शालिनी ने अपने बयान में कहा कि आशीष द्वारा इस्लाम स्वीकार करने का कोई सवाल ही नहीं उठता था, यदि ऐसा कोई कदम वे उठाते तो निश्चित ही परिवार की सहमति अवश्य लेते, लेकिन मुझे नहीं पता कि पति को ज़हर देकर मारने जैसा घिनौना आरोप मुझ पर क्यों लगाया जा रहा है।

इन सारी दुश्वारियों व मानसिक कष्टों के कारण शालिनी की दिमागी हालत बहुत दबाव में आ गई थी एवं वह गुमसुम सी रहने लगी थी, लेकिन उसने हार नहीं मानी और सऊदी प्रशासन से लगातार न्याय की गुहार लगाती रही। अन्ततः 3 दिसम्बर 2010 को सऊदी सरकार ने यह मानते हुए कि डॉ आशीष की मौत स्वाभाविक है, व उन्होंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया था, शालिनी चावला को उनका शव भारत ले जाने की अनुमति दी। डॉ आशीष का अन्तिम संस्कार 8 दिसम्बर (बुधवार) को दिल्ली के निगमबोध घाट पर किया गया… आँखों में आँसू लिये यह बहादुर महिला तनकर खड़ी रही, डॉ शालिनी जैसी परिस्थितियाँ किसी सामान्य इंसान पर बीतती तो वह कब का टूट चुका होता…

यह घटनाक्रम इतना हृदयविदारक है कि मैं इसका कोई विश्लेषण नहीं करना चाहता, मैं सब कुछ पाठकों पर छोड़ना चाहता हूँ… वे ही सोचें…

1) डॉ हनीफ़ और डॉ शालिनी के मामले में कांग्रेस सरकार के दोहरे रवैये के बारे में सोचें…


2) ऑस्ट्रेलिया सरकार एवं सऊदी सरकार के बर्ताव के अन्तर के बारे में सोचें…


3) भारत में काम करने वाले, अरबों का चन्दा डकारने वाले, मानवाधिकार और महिला संगठनों ने इस मामले में क्या किया, यह सोचें…


4) डॉली बिन्द्रा, वीना मलिक जैसी छिछोरी महिलाओं के किस्से चटखारे ले-लेकर दिन-रात सुनाने वाले “जागरुक” व “सबसे तेज़” मीडिया ने इस महिला पर कभी स्टोरी चलाई? इस बारे में सोचें…


5) भारत की सरकार का विदेशों में दबदबा(?), भारतीय दूतावासों के रोल और शशि थरुर आदि की औकात के बारे में भी सोचें…

और हाँ… कभी पैसा कमाने से थोड़ा समय फ़्री मिले, तो इस बात पर भी विचार कीजियेगा कि फ़िजी, मलेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब और यहाँ तक कि कश्मीर, असम, बंगाल जैसी जगहों पर हिन्दू क्यों लगातार जूते खाते रहते हैं? कोई उन्हें पूछता तक नहीं…
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विषय से जुड़ा एक पुराना मामला –

जो लोग “सेकुलरिज़्म” के गुण गाते नहीं थकते, जो लोग “तथाकथित मॉडरेट इस्लाम”(?)की दुहाईयाँ देते रहते हैं, अब उन्हें डॉ शालिनी के साथ-साथ, मलेशिया के श्री एम मूर्ति के मामले (2006) को भी याद कर लेना चाहिये, जिसमें उसकी मौत के बाद मलेशिया की “शरीयत अदालत” ने कहा था कि उसने मौत से पहले इस्लाम स्वीकार कर लिया था। परिवार के विरोध और न्याय की गुहार के बावजूद उन्हें इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार दफ़नाया गया था। जी नहीं… एम मूर्ति, भारत से वहाँ नौकरी करने नहीं गये थे, मूर्ति साहब मलेशिया के ही नागरिक थे, और ऐसे-वैसे मामूली नागरिक भी नहीं… माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई की थी, मलेशिया की सेना में लेफ़्टिनेंट रहे, मलेशिया की सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया था… लेकिन क्या करें, दुर्भाग्य से वह “हिन्दू” थे…। विस्तार से यहाँ देखें…http://en.wikipedia.org/wiki/Maniam_Moorthy

भारत की सरकार जो “अपने नागरिकों” (वह भी एक विधवा महिला) के लिये ही कुछ नहीं कर पाती, तो मूर्ति जी के लिये क्या करती…? और फ़िर जब “ईमानदार लेकिन निकम्मे बाबू” कह चुके हैं कि “देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…” तो फ़िर एक हिन्दू विधवा का दुख हो या मुम्बई के हमले में सैकड़ों मासूम मारे जायें… वे अपनी नींद क्यों खराब करने लगे?

बहरहाल, पहले मुगलों, फ़िर अंग्रेजों, और अब गाँधी परिवार की गुलामी में व्यस्त, “लतखोर” हिन्दुओं को अंग्रेजी नववर्ष की शुभकामनाएं… क्योंकि वे मूर्ख इसी में “खुश” भी हैं…। विश्वास न आता हो तो 31 तारीख की रात को देख लेना…।

डॉ शालिनी चावला, मैं आपको दिल की गहराईयों से सलाम करता हूँ और आपका सम्मान करता हूँ, जिस जीवटता से आपने विपरीत और कठोर हालात का सामना किया, उसकी तारीफ़ के लिये शब्द नहीं हैं मेरे पास…
(…समाप्त)


मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

मुस्लिम तुष्टिकरण

जिस देश का गृहमंत्री अपने ही देश के बहुसंख्यक समाज को आतंकवादी कहे जबकि वह उसी समाज का हिस्सा है, तो यह सोचना होगा कि वह कहीं मानसिक दिवालियेपन का शिकार तो नहीं हो रहे या फिर इसके पीछे उनका कोई स्वार्थ है। लेकिन इस दिवालियेपन का शिकार तो उस सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी है जिन्होंने उन लोगों को स्वायत्ताता अर्थात लगभग आजादी का आश्वासन दे दिया है जो भारत का तिरंगा जलाते है, भारत की फौज पर हमला करते है, भारत मुर्दाबाद के नारे लगाते है। किसी भी देश की सरकार के इस प्रकार के बयानो को क्या देशहित मे कहेंगे जो देश को पुन: विभाजन की और धकेल रहे है।

आजादी के समय से ही इस सोच का भारत में विकास होना शुरू हो गया था। वर्तमान सरकार के पितृपुरुष तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरुजी ने इसकी नींव कश्मीर में रखी थी। 20 अक्टुबर 1947 को पाकिस्तानी सेना व कबाईलियो ने कश्मीर पर कब्जा करने के लिये हमला किया महाराजा की सेना के मुस्लिम सिपाहियो ने पाक सेना के साथ चली गयी। पाकिस्तानी सेना के इस हमले का करारा जवाब हमारी फौजो ने देना ही शुरु किया था कि नेहरु जी ने आल इन्डिया रेडियों पर घोषणा कर दी कि भारतीय फौजे जहाँ है वही रुक जाये, हम शान्ति विराम की घोषणा करते है साथ ही जनमत संग्रह का आश्वासन कश्मीरी जनता को देते है। उनकी इस घोषणा के बाद कश्मीर का एक तिहाई क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में चला गया। तबसे आज तक पाकिस्तान भारत पर निगाहे गढ़ाये बैठा है। हमारी सरकार ने भी कश्मीरियों को भारत से जोड़ने के नाम पर उस राज्य के अन्य क्षेत्र जम्मू और लद्दाख की इतनी उपेक्षा की जिसकी हद नहीं। जरा इन आंकड़ो का ध्यान करें :

- जम्मू कश्मीर राज्य का क्षेत्रफल 1947 में 2,22,236 वर्ग कि.मी. था जो आज घटकर 1,01,387 वर्ग कि.मी. रह गया है। आज पाकिस्तान ने 78,114 वर्ग कि.मी. व चीन ने 42735 वर्ग कि.मी भूमि पर कब्जा किया हुआ है। यह हमारी राजनैतिक कमजोरी का परिणाम है।

- जम्मू का क्षेत्रफल 26,293 वर्ग कि.मी., कश्मीर का क्षेत्रफल 15853 वर्ग कि.मी. व लद्दाख का क्षेत्रफल 59241 वर्ग कि.मी. है।

- जम्मू की जनसंख्या लगभग 25 लाख व कश्मीर की जनसंख्या 24 लाख के आसपास है इसमें से लगभग 5 लाख कश्मीरी पण्डित पूरे देश में विस्थापितों का जीवन बिता रहे है। दोनो क्षेत्रो की लगभग समान जनसंख्या होने के बावजूद 37 विधानसभा सीटे जम्मू में, 4 विधानसभा सीटे लद्दाख में व 46 सीटें कश्मीर में रखी गयी। इन नौ सीटो के अन्तर ने आज तक गैर कश्मीरी और गैर मुस्लिम को जम्मू कश्मीर राज्य का मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया। क्या यह बगैर योजना के सम्भव है।

- जम्मू और लद्दाख के साथ यह भेदभाव अन्य क्षेत्रों में भी बरता गया है। जैसे राजस्व प्राप्ति जम्मू से 70 प्रतिशत व कश्मीर से 30 प्रतिशत होती है। लेकिन विकास के नाम पर जम्मू पर 28 प्रतिशत, लद्दाख पर 10 प्रतिशत व कश्मीर पर 62 प्रतिशत खर्च होता है।

- पूरे जम्मू में व्यवस्था देखने के लिये 4 कमिश्नर है जबकि कश्मीर में 31 कमिश्नर/सचिव है।

- रोजगार के नाम पर केवल 10 प्रतिशत कर्मचारी ही जम्मू से प्रशासनिक सेवाओं में है जबकि कश्मीर से 90 प्रतिशत।

- केन्द्र सरकार से सम्बन्धित सभी विभागों एवं 13 राज्य निगमों के मुख्यालय कश्मीर में है जिसमें सभी कर्मचारी कश्मीरी है।

इस तुष्टिकरण के बाद भी कश्मीर शांत नहीं है। कश्मीर घाटी का यह विवाद जिसका खामियाजा आज पुरा भारत आतंकवाद के रुप में भुगत रहा है, इसे प्रधानमंत्री स्वायत्ताता के नाम पर हवा दे रहे है। क्या यह भारत को पुन: विभाजन की और धकेलना नही है।

क्या यह तुष्टिकरण कभी रुकेगा जिसके अनुगामी केवल नेहरू गांधी वंशज ही नही अन्य नेता भी हो रहे है। मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर शुरू हुये इस सत्ता के खेल ने आज हिन्दु समाज को भी भगवा आतंकवादी करार दे दिया है। कहीं इस तुष्टिकरण ने हिन्दु समाज को एक समुह मे इकठ्रठा कर दिया तो नेहरू गांधी वंशज व उनके विचार के अनुगामी नेता सोच ले उनका किया हश्र होगा।


बस एक सरदार (पटेल )चाहिए कश्मीर के लिये

कश्मीर में अब निर्णय की उम्मीद दिखेगी इस आस में हम २७ अक्टूबर १९४७ से प्रतिक्षारत है। पाकिस्तान ने अपनी फौज को छदम रूप में भेजकर उस समय तक अधर में लटके कश्मीर को हड़पने की साजिश रची थी। तब से लेकर आज तक कश्मीर की बीमारी दूर होने के बजाय कुछ ऐसे बढ़ी जैसे के ज्यों –ज्यों इलाज किया मर्ज बढाता ही गया। आजादी के पहले के कश्मीर राज्य का लगभग पैंतालीस प्रतिशत भारत के पास है। पैंतीस प्रतिशत नापाक, पाक के कब्जे में है और बचा हुआ लगभग बीस प्रतिशत चीन ने अवैध रूप से दबा रखा हैं। भारतीय कश्मीर के भी तीन भाग है ,जम्मू में हिंदुओं का बाहुल्य है तो लद्दाख में बौद्ध धर्म के अनुयायी बहुतायात में है और कश्मीर घाटी मुस्लिम बाहुल्य है।

पाक कश्मीर को छोड़े तो भारतीय हिस्से में भी तीन तरह की विचार धारा वाले लोग है। एक पक्ष भारत में ही रहना चाहता है ,दूसरा पक्ष पाकिस्तान के साथ अपना भविष्य उज्जवल देखता है वही तीसरा धड़ा कश्मीर को एक अलग राज्य के रूप में स्वतंत्र किये जाने की मांग करता है। इस त्रिकोण में कश्मीर के अच्छे लोग और पर्यटन का प्रमुख व्यवसाय घुट-घुट कर मरणासन्न स्तिथि में आ चुका है। ये अलगाववादी लोग और इनके कार्यकर्ता अपने आप को आतंकवादी के स्थान पर तथाकथित स्वतंत्रता सेनानी मानते है और ऐसा प्रचार भी करते है। अफज़ल गुरु को आज भी ये अतिवादी आतंकवादी नहीं मानते और उसे कश्मीर के कथित स्वतंत्रता की मुहिम का सिपाही प्रचारित करते है। इस विचारधारा से संघर्ष एक बड़ी चुनौती बन गया है।

सैंतालीस में महाराजा हरि सिंह के भारत में शामिल होने के निर्णय में २० अक्टूबर से २७ अक्टूबर तक का समय निकल गया और इतनी देर में पाक ने पैंतीस प्रतिशत भू-भाग पर कब्ज़ा कर लिया, जो सिद्धांत रूप से गलत है। क्योंकि महाराजा ने पूरे कश्मीर का विलय भारत में चाहा था, विभाजित कश्मीर का नहीं। इसके बाद धीरे–धीरे घाटी से मुस्लिमों के अतिरिक्त अन्य धर्मावलंबियों को छल से या बल से बाहर कर दिया गया। आज भी ऐसे कई परिवार है जो कश्मीर में अपनी जमीन–जायदाद छोड़कर देश के कई भागों में शरणार्थियों के रूप में जी रहें है।

भारत पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, और दुनिया में सिर्फ इस विभाजन को छोड़ दे तो सभी जगह भूमि के साथ जनता ने अपने को विभाजित किया है, बुल्गारिया –तुर्की ,पौलैंड –जर्मनी ,बोस्निया –सर्बिया सहित पाकिस्तान और बंगलादेश ने भी विभाजन के बाद अन्य धर्मों के लोगो को बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर पीड़ित और प्रताडित किया। घाटी में मुस्लिम आबादी की अधिकता को देखकर पाकिस्तान इस पर अपने दांत गडाये बैठा है ,तो हमारे धर्मनिरपेक्ष स्वरुप के कारण ये हमारे लिए भी प्रतिष्ठा की बात है। सैंतालीस से कारगिल तक और आज भी इस भूमि पर स्वामित्व का संघर्ष जारी है। लेकिन ये प्रतिष्ठा की लड़ाई अब तक ना जाने कितने ही मानव और अर्थ संसाधन लील चुकी है और नतीजा सिफर है। कश्मीर में कानून –व्यवस्था राज्य सरकार का जिम्मा है फिर केंद्र सरकारों को भी अपनी पूरी दम–ख़म का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।

कश्मीर उस सोये हुए ज्वालामुखी के सामान हो गया है ,जो अचानक कभी भी फट पड़ता है और परेशानी इस बात की है कि कोई भी इसकी तीव्रता का अंदाज नहीं लग सकता। कांग्रेस और मुफ्ती सईद की पिछली सरकार के समय ये ज्वालामुखी लगभग शांत सा बना रहा और पर्यटकों ने फिर कश्मीर को अपने कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था, लेकिन कांग्रेस के हिस्से की सरकार के दौरान अमरनाथ यात्रा से उपजे विवाद ने जो माहौल खराब किया,तब से लेकर अब तक दिन –ब –दिन हालात खराब होते जा रहें है और उसे उमर अब्दुल्ला की वर्तमान सरकार भी नहीं सम्हाल पा रही है। इस आग में घी का कम एक लेखिका के बयान ने कर दिया जो सदा ही नक्सलियों और अलगाववादियों के साथ है। ,इस बयान की ध्वनि और अलगाववादियों के सुर एक से लगते है, जो किसी भारतीय को ललकारते से प्रतीत हो रहें है। सर्व –दलीय संसदीय दल के दौरे के विफलता के बाद नियुक्त तीन वार्ताकारों से कुछ आस बंधी थी के ये गैर राजनीतिक लोग शायद कुछ कर सके पर अफ़सोस की ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा। इन नव नियुक्त वार्ताकारों का दल भी असफलता के पथ पर जाते दिख रहा है।

भारत में कम्युनिस्ट मांग कर रहें है के कश्मीर के लिए एक विधिवत गठित संसदीय समित हो जो कश्मीर और जम्मू में लोगों से बात करे साथ ही विशेष सेना शक्ति अधिनियम को वापस लिया जाये, क्यो कि इस अधिनियम की आड़ में सेना कथित रूप से मानव अधिकारों का हनन का करती है, यद्यपि ये अधिनियम उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी लागू है। इस तरह से सरकार में शामिल दलों और विपक्षी दलों की सोच भी एकरूप नहीं है।

अमरीकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा ने इस विवाद को और भी गरमा दिए है और कश्मीर के अलगाववादियों ने ओबामा से बहुत उम्मीद बांध रखी है। हुर्रियत कांफ्रेंस ने तो ब-कायदा ५ नवम्बर तक एक हस्ताक्षर अभियान भी चलाया है ,इन हस्ताक्षरों को ६ नवम्बर को दिल्ली में अमरीकी दूतावास को सौंपा जायेगा। इस अभियान के द्वारा हुर्रियत अमेरिकी प्रमुख से ये अपील करना चाहती है कि कश्मीर के मसले पर अमरीकी सोच में बदलाव आये और भारत पर ये दवाब बनाया जाये की कश्मीर में जनमत संग्रह कर वह के लोगो की राय के हिसाब से इस मामले को हल किया जाये।

इस समस्या ने इस मिथक को भी तोड़ दिया की विकास की योजनाओं और बुनियादी अवशक्ताओ की पूर्ति से किसी भी समस्या का हल ढूंढा जा सकता है, कश्मीर में वो सब प्रयास विफल रहे है। वो हाथ जो डल झील में नाव चलाते थे, अब पत्थर-बाजी में शरीक है।

इन स्थितियों में तो ऐसा लगता है काश आज सरदार पटेल के कद और राजनीतिक दृढता वाला कोई नेता देश में होता तो अब तक ये विवाद कब का हल हो गया होता। हम एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी बिना नतीजा तक इस समस्या को स्थानान्तरित तो कर ही चुके है। अब तो कोई कड़ा और कड़वा निर्णय ही कश्मीर समस्या का हल दे पायेगा। नहीं तो यह विवाद ऐसे ही धधकता रहेगा और हमारे बहुमूल्य संसाधनों को ईधन के रूप में डकारता रहेगा.

विनायक सेन, माओवाद और बेचारा जनतंत्र

डा. विनायक सेन- एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, पढ़ाई से डाक्टर हैं, प्रख्यात श्रमिक नेता स्व.शंकरगुहा नियोगी के साथ मिलकर मजदूरों के बीच काम किया, गरीबों के डाक्टर हैं और चाहते हैं कि आम आदमी की जिंदगी से अंधेरा खत्म हो। ऐसे आदमी का माओवादियों से क्या रिश्ता हो सकता है ? लेकिन रायपुर की अदालत ने उन्हें राजद्रोह का आरोपी पाया है। आजीवन कारावास की सजा दी है। प्रथम दृष्ट्या यह एक ऐसा सच है जो हजम नहीं होता। रायपुर में रहते हुए मैंने उन्हें देखा है। उनके जीवन और जिंदगी को सादगी से जीने के तरीके पर मुग्ध रहा हूं। किंतु ऐसा व्यक्ति किस तरह समाज और व्यवस्था को बदलने के आंदोलन से जुड़कर कुछ ऐसे काम भी कर डालता है कि उसके काम देशद्रोह की परिधि में आ जाएं, मुझे चिंतित करते हैं। क्या हमारे लोकतंत्र की नाकामियां ही हमारे लोगों को माओवाद या विभिन्न देशतोड़क विचारों की ओर धकेल रही हैं? इस प्रश्न पर मैं उसी समय से सोच रहा हूं जब डा. विनायक सेन पर ऐसे आरोप लगे थे।

अदालत के फैसले पर हाय-तौबा क्यों-

अदालत, अदालत होती है और वह सबूतों की के आधार पर फैसले देती हैं। अदालत का फैसला जो है उससे साबित है कि डा. सेन के खिलाफ आरोप जो थे, वे आरोप सच पाए गए और सबूत उनके खिलाफ हैं। अभी कुछ समय पहले की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसी मामले पर जमानत दी थी। उस जमानत को एक बड़ी विजय के रूप में निरूपित किया गया था और तब हमारे कथित बुद्धिजीवियों ने अदालत की बलिहारी गायी थी। अब जब रायपुर की अदालत का फैसला सामने है तो स्वामी अग्निवेश से लेकर तमाम समाज सेवकों की भाषा सुनिए कि अदालतें भरोसे के काबिल नहीं रहीं और अदालतों से भरोसा उठ गया है और जाने क्या-क्या। ये बातें बताती हैं कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं। जहां हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं को सम्मान देना तो दूर उनके प्रति अविश्वास पैदा कर न्याय की बात करते हैं। निशाना यहां तक कि जनतंत्र भी हमें बेमानी लगने लगता है और हम अपने न्यायपूर्ण राज्य का स्वर्ग माओवाद में देखने लगते हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें, जिनका इस देश के गणतंत्र में भरोसा नहीं है अपने निजी स्वर्ग रचना चाहती हैं। उनकी जंग जनतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने, उसे सार्थक बनाने की नहीं हैं। उनकी जंग तो इस देश के भूगोल को तितर-बितर कर देने के लिए है। वे भारत को सांस्कृतिक इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। शायद इसी वैचारिक एकता के नाते अलग काश्मीर का ख्वाब देखने वाले अलीशाह गिलानी, माओ का राज लाने में लगे कवि बरवर राव और देश को टुकड़ों का बांटने की स्वप्नदृष्टा अरूंघती राय, खालिस्तान के समर्थक नेता एक मंच पर आने में संकोच नहीं करते। यह आश्चर्यजनक है इन सबके ख्वाब और मंजिलें अलग-अलग हैं पर मंच एक हैं और मिशन एक है- भारत को कमजोर करना। यह अकारण नहीं है मीडिया की खबरें हमें बताती हैं कि जब छत्तीसगढ़ में माओवादियों की एक महत्वपूर्ण बैठक हुयी तो उसमें लश्करे तैयबा के दो प्रतिनिधि भी वहां पहुंचे।

उनकी लड़ाई तो देश के गणतंत्र के खिलाफ है-

आप इस सचों पर पर्दा डाल सकते हैं। देश के भावी प्रधानमंत्री की तरह सोच सकते हैं कि असली खतरा लश्करे तैयबा से नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है। चीजों को अतिसरलीकृत करके देखने का अभियान जो हमारी राजनीति ने शुरू किया है ,उसका अंत नहीं है। माओवादियों के प्रति सहानूभूति रखने वाली लेखिका अगर उन्हें हथियारबंद गांधीवादी कह रही हैं तो हम आप इसे सुनने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र ही है, जो आपको लोकतंत्र के खिलाफ भी आवाज उठाने की आजादी देता है। यह लोकतंत्र का सौन्दर्य भी है। हमारी व्यवस्था जैसी भी है किंतु उसे लांछित कर आप जो व्यवस्थाएं लाना चाहते हैं क्या वे न्यायपूर्ण हैं? इस पर भी विचार करना चाहिए। जिस तरह से विचारों की तानाशाही चलाने का एक विचार माओवाद या माक्सर्वाद है क्या वह किसी घटिया से लोकतंत्र का भी विकल्प हो सकता है? पूरी इस्लामिक पट्टी में भारत के समानांतर कोई लोकतंत्र खोजकर बताइए ? क्या कारण है अलग- अलग विचारों के लोग भारत के गणतंत्र या भारतीय राज्य के खिलाफ एक हो जाते हैं। उनकी लड़ाई दरअसल इस देश की एकता और अखंडता से है।

मोहरे और नारों के लिए गरीबों की बात करना एक अलग बात है किंतु जब काश्मीर के आतंकवादियों- पत्थर बाजों, मणिपुर के मुइया और माओवादी आतंकवादियों के सर्मथक एक साथ खड़े नजर आते हैं तो बातें बहुत साफ हो जाती हैं। इसे तर्क से खारिज नहीं किया जा सकता कि घोटालेबाज धूम रहे हैं और विनायक सेन को सजा हो जाती है। धोटालेबाजों को भी सजा होनी चाहिए, वे भी जेल में होने चाहिए। किसी से तुलना करके किसी का अपराध कम नहीं हो जाता। अरूंधती की गलतबयानी और देशद्रोही विचारों के खिलाफ तो केंद्र सरकार मामला दर्ज करने के पीछे हट गयी तो क्या उससे अरूंधती का पाप कम हो गया। संसद पर हमले के आरोपी को सजा देने में भारतीय राज्य के हाथ कांप रहे हैं तो क्या उससे उसका पाप कम हो गया। यह हमारे तंत्र की कमजोरियां हैं कि यहां निरपराध लोग मारे जाते हैं, और अपराधी संसद तक पहुंच जाते हैं। किंतु इन कमजोरियों से सच और झूठ का अंतर खत्म नहीं हो जाता। जनसंगठन बना कर नक्सलियों के प्रति सहानुभूति के शब्दजाल रचना, कूटरचना करना, भारतीय राज्य के खिलाफ वातावरण बनाना, विदेशी पैसों के बल पर देश को तोड़ने का षडयंत्र करना ऐसे बहुत से काम हैं जो हो रहे हैं। हमें पता है वे कौन से लोग हैं किंतु हमारे जनतंत्र की खूबियां हैं कि वह तमाम सवालों पर अन्यान्न कारणों से खामोशी ओढ़ लेता है। वोटबैंक की राजनीति ने हमारे जनतंत्र को सही मायने में कायर और निकम्मा बना दिया है। फैसले लेने में हमारे हाथ कांपते हैं। देशद्रोही यहां शान से देशतोड़क बयान देते हुए घूम सकते हैं। माओ के राज के स्वप्नदृष्टा जरा माओ के राज में ऐसा करके दिखाएं। माओ, स्टालिन को भूल जाइए ध्येन आन-मन चौक को याद कीजिए।

विचारों की तानाशाही भी खतरनाकः

सांप्रदायिकता और आतंकवाद के नाम पर भयभीत हम लोगों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस धरती पर ऐसे हिंसक विचार भी हैं- जिन्होंने अपनी विचारधारा के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। ये हिंसक विचारों के पोषक ही भारतीय जनतंत्र की सदाशयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। आप याद करें फैसले पक्ष में हों तो न्यायपालिका की जय हो , फैसले खिलाफ जाएं तो न्यायपालिका की ऐसी की तैसी। इसे आप राममंदिर पर आए न्यायालय के फैसले से देख सकते हैं। पहले वामविचारी बुद्धिवादी कहते रहे न्यायालय का सम्मान कीजिए और अब न्यायालय के फैसले पर भी ये ही उंगली उठा रहे हैं। इनकी नजर में तो राम की कपोल कल्पना हैं। मिथक हैं। जनविश्वास और जनता इनके ठेंगें पर। किंतु आप तय मानिए कि राम अगर कल्पना हैं मिथक हैं तो भी इतिहास से सच्चे हैं , क्योंकि उनकी कथा गरीब जनता का कंठहार है। उनकी स्तुति और उनकी गाथा गाता हुआ भारतीय समाज अपने सारे दर्द भूल जाता है जो इस अन्यायी व्यवस्था ने उसे दिए हैं।

डा. विनायक सेन, माओवादी आतंकी नहीं हैं। वे बंदूक नहीं चलाते। अरूंधती राय भी नक्सलवादी नहीं हैं। अलीशाह गिलानी भी खुद पत्थर नहीं फेंकते। वे तो यहां तक नाजुक हैं कि नहीं चाहते कि उनका बेटा कश्मीर आकर उनकी विरासत संभाले और मुसीबतें झेले। क्योंकि उसके लिए तो गरीब मुसलमानों के तमाम बेटे हैं जो गिलानी की शह पर भारतीय राज्य पर पत्थर बरसाते रहेंगें, उसके लिए अपने बेटे की जान जोखिम में क्यों डाली जाए। इसी तरह बरवर राव भी खून नहीं बहाते, शब्दों की खेती करते हैं। लेकिन क्या ये सब मिलकर एक ऐसा आधार नहीं बनाते जिससे जनतंत्र कमजोर होता है, देश के प्रति गुस्सा भरता है। माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रखे हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं। ये सारी बातें अंततः हमारे हमारे जनतंत्र के खिलाफ जाती हैं क्या इसमें कोई दो राय है।

”वर्णसंकर हिन्दु ही नकार सकता है राम का अस्तित्व”

सनातन धर्म हिन्दु समाज के रग-रग में बसे भगवान राम के बारे में शायद ही कोई अभागा व्यक्ति होगा जो नही जानता होगा कि भगवान राम कौन थे? उनकी जन्मस्थली किस जगह पर हैं? जो व्यक्ति सनातन धर्म हिन्दु समाज से नहीं हैं अर्थात जो अन्य देश या धर्मों से जुड़े हैं वही व्यक्ति श्रीराम के बारे में प्रश्न कर सकता हैं लेकिन जो इसी देश याने हिन्दुस्थान में पैदा हुआ है और जो हिन्दु समाज से ही ताल्लुक रखता हैं अगर वह व्यक्ति भगवान राम के अस्तित्व पर प्रश्न उठाता है तो मुझे उसके ही व्यक्तित्व पर शंका होती हैं कि वह कहीं वर्णसंकर प्रजाती से तो नहीं हैं? क्योकि सिर्फ वर्णसंकर हिन्दु ही भगवान राम के अस्तित्व को नकार सकता हैं, दुसरा कोई नहीं!

वर्णसंकर प्रजाति से होने वाले नुकसानों से भगवान श्रीकृष्ण ने भी श्रीमद्भगवत गीता के माध्यम से लोगों को सावधान किया हैं-

सक्ड.रो नरकायैव कुलन्घानां कुलस्य च ।

पतन्ति पितरो हयोषां तुप्तपिण्डोदकक्रिया:॥

दोषैरेतै: कुलन्घानां वर्णसंकर कारकै:।

उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्रच शाश्वता:॥

अर्थात-: वर्णसंकर सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा परिवारिक परंपरा को विनष्ट करने वालों के लिए नारकिय जीवन उत्पन्न होता है ऐसे पतित कुलों के पुरखे (पीतर) नर्क में जाते है क्योकि उन्हे जल तथा पीण्ड दान देने की क्रियाएं समाप्त हो जाती है, जो लोग कुल परंपरा को विनष्ट करते है और इस तरह वर्णसंकर संतानों को जन्म देते है उनके दुष्कर्मों से समस्त प्रकार की समुदायिक योजनाएं तथा पारिवारिक कल्याण-कार्य विनष्ट हो जाते हैं। (भगवत्गीता 1.41-42)

वर्णसंकर या राक्षस वंश हर युग में भगवान के विरोधी रहे है इस कलयुग में भी अगर कोई असुरी शक्ति भगवान के अस्तित्व को चुनौती देती है तो यह कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है यह तो हमेशा से होता आया है और आगे भी होगा। प्रकृति का नियम भी यही कहती हैं। इन्ही बातों से दैवीय या असुरी वंशजों (वर्णसंकर) की पहचान भी होती हैं।

असुरी शक्तियों द्वारा हर युग मे भगवान के अस्तित्व उनके निशान एवं पहचान को नष्ट करने की कुचेष्टा की गई हैं, ऐसा हमें अनेक धार्मिक ग्रंथ, शास्त्र-पुराणों में उदाहरण मिल जाएंगे, चाहे वह रावण हो या कंस, हिरंण्यकश्यप हो या भस्मासुर या और भी अनेंक असुरों द्वारा।

यही कुचेष्टा इस कलयुग में भी जारी है जैसे- महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मंदिर को ध्वस्त किया, महमुद गोरी ने विक्रमादित्य द्वारा स्थापित किया मिहिरावली के मंदिर-संकुल को तोड़ा और उसकी छाती में अपनी जीत की निशानी मस्जिद कुत्वतुलइस्लाम खड़ी की, फिर मलिक कफुर ने अलाउद्दीन खीलजी के साथ मिलकर दक्षिण भारत में कहर बनकर टुटा और देवगीरि को दौलताबाद बनाता हुआ रामेश्वरम के ऐतिहासिक मंदिर को तोड़ा, बहमनी सुल्तानों ने विजय नगर में खुनी आतंक खेला जो हम्पी के खंडहर आज भी खड़ें गवाही दे रहे हैं, बाबर ने अयोध्या का भव्य राम जन्मभूमि को ध्वस्त किया, औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि पर खड़े भव्य मंदिर को तोड़कर उस पर अपनी आसुरी विजय के प्रतीक मस्जिद और ईदगाह खडी की, निरंजन ठाकुर ने कामाख्या देवी के मंदिर को ध्वस्त किया तो सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह भी धनुष कोटी के रामसेतु को तोड़ने पर आमादा हैं। हमारे देश में आज भी इन आसुरी सम्राटों को मानने वालों की कमी नहीं है। जो आसुरी शक्ति हमारे ही राष्ट्र में आकर हम पर ही जुल्म ढाया, हमारी संस्कृति को नष्ट करने की चेष्टा की गई, हमारे अराध्य देवी देवताओं के प्रति अपशब्द एवं उनके अस्तित्व को मिटाने की कोशिश की गई और हम पर ही राज किया, उसके बाद भी जो लोग इन्हें पुज्य मानकर अपना आदर्श मानते है वे वर्णसंकर नहीं तो और क्या हो सकते हैं।

सत्ता का मद शासक को अंधा बनाकर सही और गलत का भेद मिटा देता है। द्वापर और त्रेता युग में रावण और कंस दोनों को राम और कृष्ण के बारे में पुरी सच्चाई मालुम था कि ये भगवान हैं, लेकिन फिर भी उन दोनों ने हमेशा ही अपनी सत्ता के अहम को पहली प्राथमिकता दी और नतीजतन अपने विनाश को ही आमंत्रित किया। यही हाल कलयुग में भी चाहे जितने सनातन धर्म के विरोधी शासक अपने हिन्दुस्थान में राज किया सभी ने सच्चाई जानते हुए भी भगवान के अस्तित्व को मिटाने की कोशिश की हैं, नतीजा वे खुद ही मिट गए। अब उसी रस्ते पर हिन्दुस्थान के वर्तमान सरकार भी चलने जा रही हैं। कहते हैं न ”विनाश काले विपरित बुद्धि।”

विनायक सेन, अरूंधती राय और माओवाद का सच!

नहीं, कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। स्वामी अग्निवेश कहते हैं इस फैसले ने न्यायपालिका को एक मजाक बना दिया है। आप याद करें जब सुप्रीम कोर्ट ने डा. विनायक सेन को जमानत पर छोड़ा गया था तो इसे एक विजय के रूप में निरूपित किया गया था। अगर वह राज्य की हार थी तो यह भी डा. सेन की जीत नहीं है। हमें अपनी अदालतों और अपने तंत्र पर भरोसा तो करना ही होगा। आखिर क्या अदालतें हवा में फैसले करती हैं ? क्या इतने ताकतवर लोगों के खिलाफ सबूत गढ़े जा सकते हैं ? ये सारे सुविधा के सिद्धांत हैं कि फैसला आपके हक में हो तो गुडी-गुडी और न हो तो अदालतें भरोसे के काबिल नहीं हैं। भारतीय संविधान, जनतंत्र और अदालतों को न मानने वाले विचार भी यहां राहत की उम्मीद करते हैं, दरअसल यही लोकतंत्र का सौंदर्य है। यह लोकतंत्र का ही सौन्दर्य है कि रात-दिन देश तोड़ने के प्रयासों में लगी ताकतें भी हिंदुस्तान के तमाम हिस्सों में अपनी बात कहते हुए धूम रही हैं और देश का मीडिया का भी उनके विचारों को प्रकाशित कर रहा है।

जनतंत्र के खिलाफ है यह जंगः

माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रख हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं।

देशतोड़कों की एकताः

देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। पिछले दिनों अरूधंती ने अपने एक लेख में लिखा हैः “मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।”

ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों।

नक्सली हिंसा, हिंसा न भवतिः

ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता है। अरूंधती राय के आउटलुक में छपे लेख को पढ़िए और बताइए कि वे किसके साथ हैं। वे किसे गुमराह कर रही हैं। अरूंधती इसी लेख में लिखती हैं -“क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए।या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप ‘हमारे’ साथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं। ” आखिर अरूंधती यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं। उन्हें किससे खतरा है। मुक्तिबोध ने भी लिखा है अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगें। महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवां रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार जिनके हाथ अफजल गुरू और कसाब को भी फांसी देते हुए कांप रहे हैं वो अरूंधती राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहां है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहां करेगा। हमारी अब तक की अर्जित व्यवस्था में निर्दोष ही शिकार होते रहे हैं।

सदके इन मासूम तर्कों केः

अरूंधती इसी लेख में लिख रही हैं- “26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।” क्या भारत मे वास्तव में आपातकाल है, यदि आपातकाल के हालात हैं तो क्या अरूंधती राय आउटलुक जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में अपने इतने महान विचार लिखने के बाद मुंबई में हिंसा का समर्थन और गांधीवाद को खारिज कर पातीं। मीडिया को निशाना बनाना एक आसान शौक है क्योंकि मीडिया भी इस खेल में शामिल है। यह जाने बिना कि किस विचार को प्रकाशित करना, किसे नहीं, मीडिया उसे स्थान दे रहा है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतंत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं। मीडिया का विवेकहीनता और प्रचारप्रियता का इस्तेमाल करके ही अरूंधती राय जैसे लोग नायक बने हैं अब वही मीडिया उन्हें बुरा लग रहा है। अपने कहे पर संयम न हो तो मीडिया का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।

अरूंधती कह रही हैं कि “ मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को ‘माओवादी’ करार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके।”

कारपोरेट लूट पर पलता माओवादः

अरूंधती के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। अरूंधती जी पता कीजिए नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहां काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए- वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए चाहे जितना भी खाओ स्वाद से पचाओ के मंत्र पर काम कर रहे हैं। आदिवासियों के नाम पर लड़ी जा रही इस जंग में वे केवल मोहरा हैं। आप जैसे महान लेखकों की संवेदनाएं जाने कहां गुम हो जाती हैं जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर लाल आतंक के चलते सैकड़ों परिवार तबाह हो जाते हैं। राज्य की हिंसा का मंत्रजाप छोड़कर अपने मिलिंटेंट साथियो को समझाइए कि वे कुछ ऐसे काम भी करें जिससे जनता को राहत मिले। स्कूल में टीचर को पढ़ाने के लिए विवश करें न कि उसे दो हजार की लेवी लेकर मौज के लिए छोड़ दें। राशन दुकान की मानिटरिंग करें कि छत्तीसगढ में पहले पचीस पैसे किलो में अब फ्री में मिलने वाला नमक आदिवासियों को मिल रहा है या नहीं। वे इस बात की मानिटरिंग करें कि एक रूपए में मिलने वाला उनका चावल उन्हें मिल रहा है या उसे व्यापारी ब्लैक में बेच खा रहे हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करेंगें। आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब नक्सलियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी,बताई और छापी जाएगी। क्योंकि आप एक सेलिब्रिटी हैं। मीडिया आपके पीछे भागता है। पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। खुले दिल से, मुक्त मन से, उसी आदिवासी की तरह निर्दोष बनकर जाइएगा जो इस जंग में हर तरफ से पिट रहा है।

परमपवित्र नहीं हैं सरकारें:

सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं। किंतु लोकतंत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे संविधान, लोकतंत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं तो हमारे बुद्धिजीवी उनके साथ क्यों खड़े हैं। हमें पता है कि साम्यवादी या माओवादी शासन में पहला शिकार कलम ही होती है। फिर भी ये लोग वहां क्या कर रहें हैं? जाहिर तौर ये बुद्धिजीवी नहीं, सामाजिक कार्यकर्ता नहीं, ये काडर हैं जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, फिर भी किए जा रहे हैं क्योंकि उनके निशाने पर भारतीय जनतंत्र है।


संघ पर निशाना: कांग्रेस का भीतरी डर

चर्च द्वारा त्रिपुरा में शान्तिकाली जी महाराज की हत्या और ओडीशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की पृष्ठ भूमि में कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रहार करने की रणनीति को समझना आसान हो जायेगा। इन दोनों हत्याओं के मामले में कांग्रेस का रवैया आश्चर्यजनक रूप से चर्च के पक्ष में रहा। सोनिया गांधी और उनकी चर्च समर्थक शक्तियां किसी भी तरीके से शीघ्रातिशीघ्र राहुल गांधी को देश के प्रधानमंत्री के पद पर बिठा देना चाहती हैं। देश में छोट मोटे राजनैतिक हितों वाले कुछ क्षेत्रीय दलों का सहयोग उन्होंने किसी ने किसी तरीके से प्राप्त कर ही लिया है। लेकिन सोनियां और चर्च दोनों जानते है कि संघ परिवार और देश की राष्ट्र्वादी शक्तियां किसी न किसी रूप में भारत की राजनीति के केन्द्र बिन्दु तक पहुंच गई हैं। इसलिए संघ को हटाये बिना राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सकता और न ही भारत में चर्च की रणनीति सफल हो सकती है। यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनते तो सोनिया गांधी की 45 साल पहले इंग्लैंड के कैम्बिर्ज से दिल्ली में प्रधानमंत्री के घर तक पहुंचने की सारी मेहनत बेकार जायेगी और चर्च के व पश्चिमी शक्तियों के भारत की पहचान बदलने के सारे स्वप्न धूलि धूसर हो जायेंगे। इसलिए सोनियां कांग्रेस ने देश में मुस्लिम लीग के बाद फिर से मुस्लिम कार्ड खेलना शुरू कर दिया। आज तक कांग्रेस मुसलमानों को हिन्दुओं के काल्पनिक भय से भयभीत रखकर अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति पर चल रही थी और उसे इसमें सफलता भी मिल रही थी। मुसलिम समुदाय का ठोस वोट बैंक कांग्रेस की सबसे बड़ी शक्ति थी। लेकिन राष्ट्र्ीय स्वयंसेवक संघ ने जब मुस्लिम समुदाय से सीधे संवाद रचना प्रारम्भ कर दी तो कांग्रेस के नीचे से जमीन खिसकने लगी।

इस पृष्ठभूमि में मुसलमान या इस्लामपंथी विवाद का मुद्दा बन जाते हैं। कांग्रेस एवं साम्यवादियों की दृष्टि में इस देश के मुसलमान एक अलग राष्ट्र है , इसलिए उनको सावधानीपूर्वक इस देश की छूत से बचाना यह टोला जरुरी मानता है। साम्यवादी यह बात खुलकर कहते हैं और कांग्रेस इसे अपने व्यवहार से सिद्ध करती है। इस वैचारिक अवधारणा के आधार पर ये दोनों देश के मुसलमानों को अलग-थलग करके स्वयं को उनके रक्षक की भूमिका में उपस्थित करते हैं। जाहिर है इस भूमिका में रहने पर दम्भ भी आएगा। अतः ये दोनों दल मुसलमानों के तुष्टिकरण की ओर चल पडते हैं। चूकि इस देश में लोकतांत्रिक प्रणाली है इसलिए मुसलमानों को यदि बहुसंख्यक भारतीयों में डराए रखा जाएगा जो जाहिर है कि वे अपने वोट भी एकमुश्त उन्हीं की झोली में डालेंगे। अब लोकतांत्रिक प्रणाली में ज्यों-ज्यों सत्ता के दावेदार बढ रहे है त्यो -त्यों मुसलमानों के रक्षक होने का दावा करने वालों की संख्या भी बढती जा रही है। लालू यादव , मुलायम सिह यादव और रामविलास पासवानों का इस क्षेत्र में प्रवेश ‘ लेटर स्टेज ’ पर हुआ है। परन्तु जो देर से आएगा वो यकीनन हो हल्ला ज्यादा मचाएगा। इसलिए मुसलमानों की रक्षा करने के लिए इन देर से आए रक्षकों के तेवर भी उतने ही तीखे हैं।

इधर जब पिछले पाचं -छह दशकों में इन सभी ने मुसलमानों के दिमाग में यह डाल दिया है कि मामला सिर्फ उनकी रक्षा का है और बाकी चीजें तो गौण है तो उनमें से भी कुछ संगठन उठ आए हैं जिन्होंने यह कहना शुरू कर दिया है अब हमें बाहरी रक्षकों की जरुरत नहीं है हम अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। सुरक्षा का काल्पनिक भय कांग्रेस एवं कम्युनिस्टों ने मुसलमानों के मन में बैठा दिया था और सत्ता में भागीदारी का आसान रास्ता देखकर इन मुस्लिम संगठनों ने भी हाथ में हथियार उठा लिए। यह तक सब ठीक -ठाक चल रहा था केवल मुस्लिम वोटों पर छापेमारी का प्रश्न था जिसके हिस्से जितना आ जाय उतना ही सही।

इस मोड पर ‘स्क्रिप्ट ’ में अचानक कुछ गडबड होने लगी। कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट जिन लोगों से मुसलमानों को डरा रहे थे उन्ही लोगों ने मुसलमानों से बिना दलालों एवं एजेंटों की सहायता से सीघे -सीधे संवाद रचना शुरू कर दी। 1975 की आपात स्थिति में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ और मुसलमानों के बीच जो संवाद रचना नेताओं के स्तर पर प्रारम्भ हुई थी उसे इक्कीसवीं शताब्दी के शुरु में संघ के एक प्रचारक इन्द्रेश कुमार आम मुसलमान तक खीचं ले गए। ऐसा एक प्रयास कभी महात्मा गांधी ने किया था लेकिन वह प्रयास खिलाफत के माध्यम से हुआ था जो वस्तुतः इस देश के मुसलमानों की राष्ट्रªीय भावना को कही न कही खण्डित करता था। इसलिए इसका असफल होना निश्चित ही था। जो इक्का -दुक्का प्रयास दूसरे प्रयास हुए लेकिन उनका उद्देश्य तात्कालिक लाभों के लिए तुष्टिकरण ही ज्यादा था।

इन्द्रेश कुमार ने संघ के धरातल पर मुसलमानों से जो संवाद रचना प्रारम्भ की उसका उद्देदश्य न तो राजनीतिक था और न ही तात्कालिक लाभ उठाना। चूंकि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को चुनाव नही लडना था। इन्द्रेश कुमार की संवाद रचना से जो हिन्दू मुसलमानों का व्यास आसन निर्मित हुआ। वह इस देश का वही सांस्कृतिक आसन है जिसके कारण लाखों सालों से इस देश की पहचान बनी हुई है। इस संवाद रचना में स्वयं मुसलमानों ने आगे आकर कहना शुरू किया कि हमारे पुरखे हिंदू थे और उनकी जो सांस्कृतिक थाती थी वही सांस्कृतिक थाती हमारी भी है। इन संवाद रचनाओं में इन्द्रेश कुमार का एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ कि हम ‘ सिजदा तो मक्का की ओर करेंगे लेकिन गर्दन कटेगी तो भारत के लिए कटेगी। देखते ही देखते इस संवाद की अंतर्लहरें देश भर में फैली और मुसलमानों की युवा पीढी में एक नई सुगबुगाहट प्रारम्भ हो गयी। वे धीरे -धीरे उस चारदीवारी से निकलकर जिस उनके तथाकथित रक्षकों ने पिछले 60 सालों से यत्नपूर्वक निर्मित किया था , खुली हवा में सांस लेने के लिए आने लगे। इन्द्रेश कुमार की मुसलमानों से इस संवाद रचना ने देखते ही देखते ‘ मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ का आकार ग्रहण कर लिया। जाहिर है मुसलमानों के भीतर संघ की इस पहल से कांग्रेसी खेमे एवं साम्यवादी टोले में हड़बडी मचती। जिस संघ के बारे में आज तक मुसलमानों को यह कहकर डराया जाता रहा कि उनको सबसे ज्यादा खतरा संघ से है उस संघ को लेकर मुसलमानों का भ्रम छंटने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संघ मुसलमानों के खिलाफ नहीं है । संघ भारत की इस विशेषता में पूर्ण विश्वास रखता है कि ईश्वर की पूजा करने के हजारों तरीके हो सकते हैं और वास्तव में संघ इसी विचार को आगे बढाना चाहता है। जब संघ ईष्वर या अल्लाह की पूजा के हजारों तरीकों में विश्वास करता है तो उसे कुछ लोगों द्वारा इस्लामी तरीके से ईश्वर की पूजा के तरीके से भला कैसे एतराज हो सकता था। संघ को लेकर मुसलमानों के भीतर कोहरा छंटने की प्रारम्भिक प्रक्रिया शुरू हो गयी है। और इसी भीतरी डर के कारण सोनियां व्रिगेड संध पर निशाना साध रही है। सोनियां व्रिगेड को इसका एक और लाभ भी हो सकता है, जब सारे देश का ध्यान संध पर हो रहे प्रहारो पर लगा होगा तो चर्च चुपचाप अपने षडयंत्रों को सफलतापूर्वक चला सकता है।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

भारतीय पुरातत्व एवं तोजो इंटरनेशनल की विश्वसनीयता

अयोध्या प्रकरण पर प्रयाग उच्च न्यायालय की विशेष पीठ द्वारा 30 सितम्बर को दिये गये निर्णय पर अपने-अपने चश्मे के अनुसार विभिन्न दल, समाचार पत्र, पत्रिकाएं तथा दूरदर्शन वाहिनियां बोल व लिख रही हैं। इस निर्णय में मुख्य भूमिका भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और उसकी उत्खनन इकाई ने निभाई है।

1992 में बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से यह पूछा था कि क्या तथाकथित बाबरी मस्जिद किसी खाली जगह पर बनायी गयी थी या उससे पूर्व वहां पर कोई अन्य भवन था ? इस प्रश्न पर ही यह सारा मुकदमा केन्द्रित था।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न से बचते हुए अपनी बला प्रयाग उच्च न्यायालय के सिर डाल दी। उच्च न्यायालय ने इसके लिए तीन न्यायाधीशों की विशेष पीठ बनाकर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का सहयोग मांगा। पुरातत्व विभाग ने कनाडा के विशेषज्ञों के नेतृत्व में तोजो इंटरनेशनल कंपनी की सहायता ली। उसने राडार सर्वे से भूमि के सौ मीटर नीचे तक के चित्र खींचे। इनसे स्पष्ट हो गया कि वहां पर अनेक फर्श, खम्भे तथा मूर्तियां आदि विद्यमान हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसके बाद वहां कुछ स्थानों पर खुदाई करायी। इससे भी वहां कई परतों में स्थित मंदिर के अवशेषों की पुष्टि हो गयी। इस रिपोर्ट के आधार पर तीनों माननीय न्यायाधीशों ने एकमत से यह कहा कि वहां पहले से कोई हिन्दू भवन अवश्य था। अर्थात राष्ट्रपति जी के प्रश्न का स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर प्राप्त हो गया।

इसके साथ मुकदमे में जो सौ से अधिक प्रश्न और उभरे, अधिकांश विद्वानों का मानना है कि उन पर तीनों न्यायाधीशों ने अपनी वैचारिक, राजनीतिक तथा मजहबी पृष्ठभूमि के आधार पर निर्णय दिया है।

इसके बाद भी रूस, चीन तथा अरब देशों के हाथों बिके हुए विचारशून्य वामपंथी लेखक फिर उन्हीं गड़े मुर्दों को उखाड़ रहे हैं कि वहां पशुओं की हड्डियां मिली हैं और चूना-सुर्खी का प्रयोग हुआ है, जो इस्लामी काल के निर्माण को दर्शाता है; पर वे उन मूर्तियों तथा शिलालेखों को प्रमाण नहीं मानते, जो छह दिसम्बर, 92 की कारसेवा में प्राप्त हुए थे। उनका कहना है कि उन्हें कारसेवकों ने कहीं बाहर से लाकर वहां रखा है।

इन अक्ल के दुश्मनों से कोई पूछे कि बाबरी ढांचा इस्लामी नहीं तो क्या हिन्दू निर्माण था ? सभी विद्वान, इतिहास तथा पुरातत्व की रिपोर्ट पहले से ही इसे कह रहे थे और अब तो तीनों न्यायाधीशों ने भी इसे मान लिया है; पर जो बुद्धिमानों की बात मान ले, वह वामपंथी कैसा? चूना-सुर्खी का प्रयोग भारत के लाखों भवनों में हुआ है। सीमेंट तथा सरिये से पहले निर्माण में चूना-सुर्खी का व्यापक प्रयोग होता था। इस आधार पर तो पांच-सात सौ वर्ष पुराने हर भवन को इस्लामी भवन मान लिया जाए?

जहां तक छह दिसम्बर की बात है, तो उस दिन दुनिया भर का मीडिया वहां उपस्थित था। क्या किसी चित्रकार के पास ऐसा कोई चित्र है, जिसमें कारसेवक बाहर से लाकर मूर्तियां या शिलालेख वहां रखते दिखाई दे रहे हों ? इसके विपरीत प्रायः हर चित्रकार के पास ऐसे चलचित्र (वीडियो) हैं, जिसमें वे शिलालेख और मूर्तियां ढांचे से प्राप्त होते तथा कारसेवक उन्हें एक स्थान पर रखते दिखाई दे रहे हैं। हजारों चित्रकारों के कैमरों में उपलब्ध चित्रों से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?

न्यायालय के मोर्चे पर पिटने के बाद अब वामपंथी इस बात को सिर उठाये घूम रहे हैं कि प्रमाणों के ऊपर आस्था को महत्व दिया गया है, जो ठीक नहीं है और इससे भविष्य में कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी, जबकि सत्य तो यह है कि न्यायालय ने पुरातत्व के प्रमाणों को ही अपने निर्णय का मुख्य आधार बनाया है।

इस निर्णय से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और तोजो इंटरनेशनल के प्रति दुनिया भर में विश्वास जगा है। भारत में हजारों ऐसी मस्जिद, मजार और दरगाह हैं, जो पहले हिन्दू मंदिर या भवन थे। भारतीय इतिहास ग्रन्थों में इनका स्पष्ट उल्लेख है। लोकगीतों में भी ये प्रसंग तथा इनकी रक्षा के लिए बलिदान हुए हिन्दू वीरों की कथाएं जीवित हैं। यद्यपि अपने स्वभाव के अनुसार वामपंथी इसे नहीं मानते।

क्या ही अच्छा हो यदि ऐसे कुछ भवनों की जांच इन दोनों संस्थाओं से करा ली जाए। काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि, मथुरा की मस्जिदें तो अंधों को भी दिखाई देती हैं। फिर भी उनके नीचे के चित्र लिये जा सकते हैं। दिल्ली की कुतुब मीनार, आगरा का ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, भोजशाला (धार, म0प्र0), नुंद ऋषि की समाधि (चरारे शरीफ, कश्मीर), टीले वाली मस्जिद, (लक्ष्मण टीला, लखनऊ), ढाई दिन का झोपड़ा (जयपुर) आदि की जांच से सत्य एक बार फिर सामने आ जाएगा।

मुसलमानों के सर्वोच्च तीर्थ मक्का के बारे में कहते हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था, जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत अर्थात काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से लिखा है।

अरब देशों में इस्लाम से पहले शैव मत ही प्रचलित था। इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उम्र बिन हश्शाम द्वारा रचित शिव स्तुतियां श्री लक्ष्मीनारायण (बिड़ला) मंदिर, दिल्ली की ‘गीता वाटिका’ में दीवारों पर उत्कीर्ण हैं।

क्या ही अच्छा हो कि मक्का के वर्तमान भवन के चित्र भी तोजो इंटरनेशनल द्वारा खिंचवा लिये जाएं। राडार एवं उपग्रह सर्वेक्षण से सत्य प्रकट हो जाएगा। क्या स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिवादी मानने वाले वामपंथी तथा प्रयाग उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद छाती पीट रहे मजहबी नेता इस बात का समर्थन करेंगे ?


उच्‍चन्‍यायालय का ऐतिहासिक निर्णय और सेक्‍यूलरवादी विषवमन

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ का 30 सितंबर का ऐतिहासिक निर्णय यद्यपि अनेक पुराने विवादों पर निर्णायक फैसला देने से नहीं चुका है पर लगभग तीनों न्यायधीशों ने उन दुराग्रही अंग्रेजी मीडिया के एक बड़े वर्ग और कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की अयोध्या की रामजन्म स्थान के प्राचीन आस्तित्व को नकारने की निर्लज्जता का भी पर्दाफाश कर दिया है। अंग्रेजी के कुछ प्रमुख पत्र इस दुष्प्रचार नेटवर्क के वर्षों से इस देश में सूत्रधार रहे हैं। इसमें भारत के प्राचीन इतिहास का विद्रुपिकरण करने वाले कुछ इतिहासकार और पुरातत्वविदों की सांठगांठ से ऐसे पत्रकारों का जमावड़ा सारे विश्व को भ्रमित करता रहा था कि असली अयोध्या ही कोई दूसरी थी। कोई इसे बौद्ध धर्म से जुड़ी बताता था। कोई कहता था कि वास्तविक अयोध्या नाम के कई स्थान बृहत्तर भारत के दूर-दराज स्थानों पर हैं, कोई कहता था कि रामजन्म भूमि के बारहवीं या तेरहवीं शताब्दी के भग्नावशेष भी कुछ सिद्ध नहीं करते हैं, आदि आदि! हाल के निर्णय में पुरातात्विक साक्ष्यों को अकाट्य मानते हुए जिस तरह न्यायाधीशों ने प्राचीन मंदिर के अवशेषों के आस्तित्व को नकारने वालों के दावे ध्वस्त कर दिए हैं उसने फिर इस प्राचीन इतिहास के मिथ्याकरण करने वालों को बौखला दिया है। फिर उसी निर्लज्जता से मुंबई और दिल्ली के ही कुछ बड़े अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने इस प्रश्न को कि प्राचीन हिंदू मंदिर की नींव के ऊपर ही विवादित ढांचे के रूप में इसे सन् 1582 में बनाया गया था, फिर उसी आधार पर उत्तेजक रूप में भड़काने की कोशिश की है जिसमें इरफान हबीब, रामशरण शर्मा, मंजरी काटजू या दूसरे वामपंथी इतिहासकारों के पुराने राजनीति-प्रेरित विरोध को दोहराया गया है। इस प्रकरण पर न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने स्पष्ट कहा कि बाबरी मस्जिद निस्संदेह उसे पुराने स्थान के ध्वंसावशेषों पर बनी है जहां पर एक विशाल हिंदू मंदिर के अवशेष भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने सत्यापित किए हैं। न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल भी उसी स्पष्ट निर्णय पर पहुंचे कि बाबरी मस्जिद का निर्माण हिंदू मंदिर की नींव और भग्नावशेषों पर हुआ था। यहां तक कि खंडपीठ के तृतीय न्यायमूर्ति एस. यू. खान ने भी यह माना कि मस्जिद का निर्माण उन हिंदू मंदिरो के अवशेषों पर हुआ जो वहां पर प्राचीन काल से विद्यमान थे और खंडहरों की प्रस्तर सामग्री उसके निर्माण में भी प्रयुक्त की गई थी।

आस्था, प्राचीन परंपराएं, इतिहास, अंग्रेजों द्वारा अभिलेखित घटनाक्रम, पुरातात्विक साक्ष्य, यह सब रामजन्म भूमि के आस्तित्व के सच को अब उच्च-न्यायालय द्वारा भी सत्यापित किया जा चुका है, पर लगभग पांच शताब्दियों पहले चलें इस मुक्ति अभियान की अंतिम परिणति पर मीडिया के एक बड़े वर्ग का दूराग्रह अशोभनीय हैं। क्या कोई सरकारी आदेश किसी पर पाबंदी लगा सकता है कि वह इस पर हर्ष या उत्साह प्रकट न करे और संयमपूर्ण समरसता को बरकरार रखने की जिद में इसे राष्ट्रीय अस्मिता गर्व या अंतरात्मा की संतुष्टि का उत्तेजक क्षण न माने। क्या आप उन विश्वप्रसिद्ध लेखकों जैसे नोबल पुरस्कार विजेता वी. एस. नयपाल अथवा नीरद चौधरी जैसे दूसरे अनेक लेखकों व पत्रकारों की टिप्पणीयों को दोहराने पर प्रतिबंध लगा सकते हैं जो उस विवादित ढांचे के ध्वंस को इतिहास का प्रतिकार या हिंदू आस्था के पुनर्जागरण का एक नया अध्याय मानते रहे हैं? जनभावना की गहराई और संवेदनशीलता राजनीतिक दलों या सरोकार के औपचारिक निर्देशों से सदैव मापी नहीं जा सकती है।

अब इस मुद्दे को इतने महत्वपूर्ण मौलिक निर्णय के बाद भी अंग्रेजी मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा उसी पुराने चश्मों से देखते हुए कहा जा रहा है कि न्यायालय के इस निर्णय पर वस्तुतः कोई पक्ष नहीं जीता। चाहे कोई पक्ष तुरंत बाद निर्णय के विरूद्ध अपील के विषय में पहले से कुछ नहीं कह रहा था पर हमारे राजनेता और कुछ अन्य पत्रकार उसी दिन से विरोधी पक्षों को उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिए उकसा रहे थेऔर राजनीतिक समीकरणों में बदलाव की बात उठा रहे थे। ऐसे ही कुछ अन्य लोगों ने इस निर्णय में आस्था, विश्वास और ऐतिहासिक सच की हवाई बहस भी जारी कर दी। मुलायम सिंह यादव और दूसरे कुछ राजनेताओं ने मुसलमानों को भड़काने का काम पूर्ववत् शुरू कर दिया। क्या हमें स्मरण है कि अगस्त सन् 2003 में ही इसी इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने जन्मभूमि विवाद से संबंधित पुरातत्व सर्वेक्षण व की गई खुदाई की रिपोर्ट का खुलासा किया था? जिसके तहत ए.एस.आई. की 574 पृष्ठों की रिपोर्ट जो मंदिर के समर्थन में थी मीडिया को उपलब्ध कराई गई थी। ठीक उसी समय उत्तर प्रदेश में मायावती की एक बड़ी रैली और मुंबई में हुए विस्फोटों ने दृश्य-श्रव्य व मुद्रित मीडिया की सुर्खियों ने एक दूसरा ही मोड़ ले लिया था। इस वजह से इस रिपोर्ट को जो महत्व मिलना चाहिए या वह संयोगवश नहीं मिला। तभी यह तथ्य सत्यापित किए जा चुके थे कि विवादित ढांचे से जुड़े स्थान पर हीं 10 वीं और 12 वीं शताब्दी के विशाल मंदिरों के अवशेषों के विद्यमान होने की पुष्टि की गई थी। इस रिपोर्ट पर उदाहरण के लिए ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ की उस समय कैसी टिप्पणियां हुई थी, उसका उदाहरण निम्नलिखित है -

देखिए, हमारा राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक 27 अगस्त, 2010 के संपादकीय पृष्ठ पर बड़े शीर्षकों सहित क्या लिखता है – मंदिर की जल तरंगों में ज्वार : ए. एस. आई. की रिपोर्ट ने केसरिया को हरी झंडी दी! शीर्षक से व्यंगपूर्ण शैली में यह संपादकीय एक शोकगीत की तरह लिखा गया, जिसमें कहा गया था कि रामजन्म भूमि का हल न्यायालय से नहीं बल्कि, मुस्लिम नेताओं से वार्तालाप निकाला जा सकता है। पर इस प्रक्रिया में अल्पसंख्यक समुदाय के आत्मसम्मान का पूरा ध्यान रखना होगा।

इस संपादकीय के पहले वाक्य में लिखा गया था – हम सब इस पहेली व नाटक को भूल जाएं। ए. एस. आई. की रिपोर्ट जिसने ध्वस्त बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिरों के कथित साक्ष्य भगवा के पक्षधरों को ऐसे ऐतिहासिक चिह्नों के साक्ष्यों के रूप में दिए हैं जहां उन्हें अपने दावों को सही मनवाने के लिए एक और मुंहमांगा अवसर मिलेगा। यद्यपि इतिहासकारों व विशेषज्ञों ने इस रिपोर्ट के निर्णयों की सत्यता पर प्रश्नचिह्न लगाए हैं पर मंदिर निर्माण के प्रति नए उठते ज्वार में उन्हें शायद ही कोई सुनेगा। उच्च न्यायालय की रिपोर्ट या निष्कर्ष में कोई कानूनी दम नहीं हैं। आदि आदि!

इसी तर्ज पर दूसरे अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने भी देश में कानून के राज की स्थिति, हिंदू संगठनों की सांस्कृतिक पुलिस की भूमिका, उनके तालिबानीकरण व उनके संवैधानिक प्रावधानों को लगातार तोड़ने की साजिश का रोना रोया था। वे कहते हैं कि न्यायपालिका के इस तरह के निर्णय हमारे प्रजातंत्र की मूल धारणा पर चोट पहुंचाएंगे। इस पत्रों ने स्वयं अपना एजेंडा फिर जगजाहिर किया है – हमारे मीडिया का यही हिंदू विरोधी वर्ग सबको उच्च न्यायालय की रिपोर्ट को स्वीकार करने की शिक्षा दे रहा था। इससे बड़ा पाखंड क्या हो सकता है कि वही समाचार-पत्र कह रहे थे – द फाइंडिग्ज, ऑफ कोर्स, हैव नो फोर्स ऑफ लॉ! इस जांच रिपोर्ट को मानने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं हैं। क्या यह लिखने से ऐसे बड़े अंग्रेजी पत्रों की विश्वसनीयता पर चोट नहीं पहुंचती थी? यदि यह निष्कर्ष मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पक्ष में होता था तो कोई पत्र यह कह सकता था कि उस निर्णय में कानून की वैधता नहीं हैं। प्रोफेसर मंजरी काटजू तो विक्षिप्त होकर श्रीराम की हिटलर व मुसोलिनी से तुलना भी कर बैठी जिसे हमारे अंग्रेजी के पत्रों ने उध्दृत भी किया था। इस तरह की बौद्धिक जालसाजियों में हमारे वामपंथी प्राध्यापक और लेखक अग्रगण्य रहे हैं।

भूमिगत विशाल प्राचीन प्रस्तर स्तंभों के अवशेषों के आधार पर, जिनकी कार्बन डेटिंग जैसी वैज्ञानिक विधि यह ध्वंसावशेष तभी 10 वीं शताब्दी के सिद्ध हुए थे पर उन्हें उत्खनन के बाद भी अस्पष्ट व अनिश्चित साक्ष्य कहना सच से एक दुराग्रही मुंह मोड़ना था। खंडित मूर्तियाें, उत्कीर्ण स्थापत्य के भग्नावशेष व स्तंभ तत्कालीन उत्तर भारतीय शैली के प्राचीन मंदिरों के सबसे बड़े पुरातात्विक साक्ष्य है-यह रिपोर्ट में खुलकर कहा गया था। अब मंदिर केवल आस्था का प्रश्न ही नहीं रहा था, एक निर्विवाद रूप से मूर्त सत्य था।

यह एक विडंबना है कि हिंदू संगठनों की रामजन्म भूमि विवाद के लिए निरंतर भर्त्सना करने वाले राजनीतिबाज या हर छोटा बड़ा पत्रकार जैसे रातोंरात इतिहास का विशेषज्ञ और पुरातत्वविद बन बैठा था। एक दूसरा वर्ग बहुसंख्यकों से अयोध्या विववद को फिर भूल जाने का आग्रह कर रहा है। न्यायालय के बहुप्रतीक्षिप्त निर्णय के हिंदुओं के पक्ष में जाने की संभवना से अनेक बुद्धिजीवी व्यथित व विचलित थे और शुतर्मुर्ग की तरह सत्य का सामना नहीं करना चाहते हैं-पिछली बातें भूलकर आगे बढ़िए-फॉरगेट ऑर मूव ऑन। सेक्यूलरवादियों का यह नया सुविधावादी नारा था। वे ए. एस. आई. रिपोर्ट को विरोधाभासी कहते रहे थे। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में रॉयडन डी सूजा ने उसी दिन 2003 में लिखा कि वहां जैन मूर्तियां मिली, राम सीता की नहीं। एक कथित पुरातत्वविद् सूरजभान, दिल्ली विश्वविद्यालय के आर. सी. ठकरान और सुप्रिया वर्मा नामक लेखिका को विशेषज्ञ की तरह प्रस्तुत किया गया था। ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ ने उनके मंदिर को नकारने वाले वक्तव्यों पर कॉलम खोल दिए थे। जमीन के नीचे की दीवारों, स्तंभों के आधार, फर्शों के कई स्तरों की खोज राडार तरंगों से न्यायालय ने कराई थी और खुदाई में निकले उपकरणों की कार्बन डेटिंग भी की गई थी पर ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ स्वयं संपादकीय स्तर पर ऐसे कथित लेखकों की अगुवाई करें। यह खुदाई पांच महीने से अधिक थी जिसमें धरती के 50 मीटर नीचे 50 मीटर लंबे व 30 मीटर चौड़े क्षेत्र में 10 वीं से 12 वीं शताब्दी के 50 स्तंभों के अवशेषों के साथ मल गर्भगृह का भी आस्तित्व पाया गया था। उस वक्त सन् 2003 में उनका मखौल उड़ाने वाला हमारा मीडिया आज पुनः जब निर्णय द्वारा उच्च न्यायालय ने सत्यापित किया तब हतप्रभ है। निर्णय के इस पक्ष को जो 2003 में ही स्पष्ट था यदि उस समय मीडिया और राजनेता अपना फायदा उठाने के लिए जिस तरह तोड़-मरोड़ रहे थे उनको आज एक अच्छा सबक मिला है। पर कया वे इससे शिक्षा ग्रहण करेंगे?

झूठ का जाल बुनते रहने की जिनकी राजनीतिक विरासत है, ऐसे कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को पिछले एक दशक से ही जिस तरह हमारे अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग ने तर्क की बैसाखियां दी है उसका विहंगावलोकन अपेक्षित हैं। 24 दिसंबर, 2002 को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोसेफर शीरीन रत्नागर का एक लेख छापा जिसमें कहा गया था कि अयोध्या में मस्जिद के पहले मंदिर होने के उपयुक्त पुरातात्विक प्रमाण नहीं हैं। इस लेखक के एक मित्र ने उपलब्ध साक्ष्यों व अनेक प्रमाणों का उल्लेख करते हुए पत्र लिखा पर इसे न उस समाचार-पत्र ने प्रकाशित किया और न ही कोशिश करने पर भी पत्राचार किया। डॉ. कोनराड एल्स्ट ने उन्हीं दिनों लिखा था कि मस्जिद समर्थक मीडिया अक्सर खुदाई का विरोध करता रहा था जब कि बहुसंख्यक इसकी सदैव मांग करते थे।

सच तो यह है कि प्रमाणों का परीक्षण करने देश के कोने-कोने से 40 पुरातत्वज्ञ आए थे और सभी एकमत थे कि वहां प्राचीन मंदिर था। बहुत पहले ही 1975से 1980 के बीच भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के मुख्य निर्देशक प्रो. बी. बी. लाल ने अयोध्या में मस्जिद जन्मस्थान प 14 खाइयों की खुदाई उसकी प्राचीनता का पता लगाने के लिए की थी, उन्हें तभी पता चल गया था कि अयोध्या का वह स्थान कम-से-कम 3000 वर्षों पुराना था।

श्री बी. बी. लाल ने उन खाइयों में बड़े-बड़े समानांतर चौकोर स्तंभों वाले ईंट और पत्थरों का ढांचा पाया था जिनके दरवाजों पर हिंदू मूर्तियों तथा यक्ष, यक्षी, कमल के फूल, पूर्णघट आदि की प्रतिमाएं उत्कीर्ण थी। वहां किले बंदी के लिए एक दीवार भी मिली जो ईसा से तीन शताब्दियों पहले की थी। क्या ये समाचार उस समय के अर्थात् 18 जून, 1992 के समाचार-पत्रों में नहीं छपे थे। हमारे न्यायालय इन प्रमाणों की उपलब्धि से अनभिज्ञ नहीं थे और उस समय वह बाबरी ढांचा गिरा भी नहीं था। 2 जुलाई, 1992 को पुरातत्वविदों का एक दल वहां पहूंचा था डॉ. वाई. डी. शर्मा जो सर्वेक्षण के उपमुख्य निर्देशक और डा.एस.पी. गुप्ता जो इलाहाबाद संग्रहालय के संचालक थे वे भी वहां पहुंचे थे। उन्होंने जो कुछ निष्कर्ष दिए थे उसमें लगभग सभी मूर्तियों को 10वीं और 12वीं शताब्दि का माना गया। पर हमारा अंग्रजी मीडिया का एक वर्ग उनका माखौल उड़ाने में अगुवाई कर रहा था। उसी समय 10 से 13 अक्टूबर, 1992 के अयोध्या के तुलसी स्मारक भवन में देश के कोने-कोने से आए 40 पुरातत्वज्ञों की राय उपलब्ध थी। उनकी सारी सुनवाई भी 4 नवम्बर, 1992 को समाप्त हो चुकी थी। फिर उन्होंने उस समय न्याय क्यों नहीं दिया? अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग के चीत्कार और अनाप-शनाप तर्कों के कारण जो बात आज प्रामाणिक मानी गई है, उस पर उस समय विचार करना मुश्किल हो गया था। दशकों की अंतहीन मुकदमेबाजी के उपरांत वह ऐतिहासिक क्षण अंततः इसी 30 सितंबर, 2010 को आ गया और अब तक इस विवाद को सुलज्ञाने की अनिच्छा विषाक्त वातावरण बनाने के कारण नहीं आ सकता था। झूठ की बुनियाद पर खड़े प्रचारतंत्र का महल अंततः इसी 30 दिसंबर, 2010 को ढह गया जब उच्च न्यायालय ने सर्वमत से मंदिर के प्राचीन अस्तित्व को स्वीकार किया।